स्व में होना ही दुःख-निरोध है


रात्रि घनी हो रही है. आकाश में थोड़े से तारे हैं और पश्चिम में खंडित चांद लटका हुआ है. बेला खिली है और उसकी गंध हवा में तैर रही है.
मैं एक महिला को द्वार तक छोड़कर वापस लौटा हूं. में उन्हें जानता नहीं हूं. कोई दुख उनके चित्त को घेरे है. उसकी कालिमा उनके चारों ओर एक मंडल बनकर खड़ी हो गयी है.
यह दुख मंडल उनके आते ही मुझे अनुभव हुआ था. उन्होंने भी, बिना समय खोये, आते ही पूछा था कि ‘क्या दुख मिटाया जा सकता है?’ मैं उन्हें देखता हूं, वे दुख की प्रतिमा मालूम होती हैं.
और सारे लोग ही धीरे-धीरे ऐसी ही प्रतिमाएं होते जा रहे हें. वे सभी दुख मिटाना चाहते हैं, पर नहीं मिटा पाते हैं, क्योंकि दुख का, उनका निदान सत्य नहीं है.
चेतना की एक स्थिति में दुख होता है. वह उस स्थिति का स्वरूप है. उस स्थिति के भीतर दुख से छुटकारा नहीं है. कारण, वह स्थिति ही दुख है. उसमें एक दुख हटायें, तो दूसरा आ जाता है. यह श्रंखला चलती जाती है. इस दुख से छूटें, उस दुख से छूटें, पर दुख से छूटना नहीं होता है. दुख बना रहता है, केवल निमित्त बदल जाते हैं. दुख से मुक्ति पाने से नहीं, चेतना की स्थिति बदलने से ही दुख निरोध होता है- दुख-मुक्ति होती है.
एक अंधेरी रात गौतम बुद्ध के पास एक युवक पहुंचा था, दुखी, चिंतित, संताप ग्रस्त. उसने जाकर कहा था, ‘संसार कैसा दुख है, कैसी पीड़ा है!’ गौतम बुद्ध बोले थे, ‘मैं जहां हूं, वहां आ जाओ, वहां दुख नहीं है, वहां संताप नहीं है.’
एक चेतना है, जहां दुख नहीं है. इस चेतना के लिए ही बुद्ध बोले थे, ‘जहां मैं हूं.’ मनुष्य की चेतना की दो स्थितियां हैं : अज्ञान की और ज्ञान की, पर-तादात्म्य की और स्व-बोध की. मैं जब तक ‘पर’ से तादात्म्य कर रहा हूं, तब तक दुख है. यह पर-बंधन ही दुख है. ‘पर’ से मुक्त होकर ‘स्व’ को जानना और स्व में होना दुख-निरोध है. मैं अभी ‘मैं’ नहीं हूं, इसमें दुख है. मैं वस्तुत: जब ‘मैं’ होता है, तब दुख मिटता है.

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